Thursday, October 23, 2008

आओ दीप जालायें आली !

आओ दीप जलायें आली !
खुशियाँ ले कर आयी दिवाली !!
सब पर्वों में प्रिय पर्व यह,
इसकी तो है बात निराली !
आओ दीप जालायें आली !!

बंदनवार लगे हैं घर-घर !
रात सजी है दुल्हन बन कर !!
दीपक जलते जग-मग-जग-मग !
रात चमकती चक-मक-चक-मक !!
झिल-मिल दीपक की पांति से,
रहा न कोई कोना खाली !
आओ दीप जलायें आली !!

दादू लाये बहुत मिठाई,
लेकिन दादी हुक्म सुनाई !!
पूजा से पहले मत खाना,
वरना होगी बड़ी पिटाई !
मोजो कहाँ मानने वाली,
छुप के एक मिठाई खा ली !
आओ दीप जालायें आली !!

अब देखें आँगन में क्या है,
अरे यहाँ तो बड़ा मजा है !
भाभी सजा रही रंगोली !
उठ कर के भैय्या से बोली,
सुनते हो जी ! किधर गए ?
ले आओ दीपक की थाली !
आओ दीप जलायें आली !!

सुम्मी एक पटाखा छोड़ी !
अवनी डर कर घर में दौड़ी !!
झट पापा ने गोद उठाया!
बड़े प्यार से उसे बुझाया !!
देखो कितने दीप जले हैं !
एक दूजे से गले मिले हैं !!
नन्हें दीपक ने मिल जुल कर,
रोशन कर दी रजनी काली !!
आओ दीप जालायें आली !!

नमस्कार मित्रों,

अतिशय व्यावसायिक व्यस्तता के कारण ब्लॉग-भ्रमण नही कर पा रहा था. आख़िरी पोस्ट आज से ठीक एक महीने पूर्व प्रकाशित किया था. ज्योति-पर्व पर अपनी एक पुरानी रचना ले कर आपकी सेवा में उपस्थित हूँ! पूर्व मे यह कविता हिंद युग्म पर प्रकाशित हो चुकी है! काव्य-पथ पर निरंतर अग्रसर होने के लिए आपका प्रोत्साहन और मार्ग-दर्शन अपेक्षित है! ज्योति पर्व की शुभ कामनाओं के साथ,

करण समस्तीपुरी

2 comments:

Aadarsh Rathore said...

मान गए आपके विचारों के अभिव्यक्तिकरण की योग्यता को, अति उत्तम

सुभाष चन्द्र said...

स्वयं को यायावर तो कह नहीं सकता, लेकिन नियति यायावरी ही होती जा रही है। सो, भ्रमणक्रम में ही आपके ठौर पर कुछ पल के लिए ठहरा तो मन में आया कि नमस्कार करता चलूं; आपके कृतित्व को।
सुभास चंद्र, नई दिल्ली